Monday, October 09, 2006

ये भी हमें मालूम न था

सच और झूठ किसे कहते हैं
ये भी हमें मालूम न था
हम किस्के घर में रहते हैं
ये भी हमें मालूम न था

रात का साथी दिन को बिछ्ड़ा
तो कुछ बाद्ल घिर आये
दिन और रात इसे कहते हैं
ये भी हमें मालूम न था

घर की याद कभी जब आई
तो आई की याद आई
घर पे मां तनहा रहती है
ये भी हमें मालूम न था

थोड़ी दूर पे दैर-ओ-हरम है
फिर भी भटकते हैं सारे
कौन ख़ुदा है कौन तमाशा
ये भी हमें मालूम न था

कैसी क़सद है कैसी क़सद है
जीना मरना दूभर है
जीते रहना अपनी सज़ा है
ये भी हमें मालूम न था

बारिश से बचकर जो निकले
फ़िसलन से ना बच पाये
सबके नसीब में येही लिखा है
ये भी हमें मालूम न था

ख़ुद अपने ही हाथों सूली
चढ़ने की ठानी हमनें
दुनियादारी एक सज़ा है
ये भी हमें मालूम न था

तुमको क्या मालूम है कहते
तुम तो ठहरे अनजाने
दुनिया को मालूम है सबकुछ
ये भी हमें मालूम न था

1 comment:

रवि रतलामी said...

"..बारिश से बचकर जो निकले
फ़िसलन से ना बच पाये
सबके नसीब में येही लिखा है
ये भी हमें मालूम न था.."


ख़ूबसूरत शेर.

बढ़िया ग़ज़ल. :)

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