Wednesday, February 14, 2024

तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए

इस तरह फ़ासलों से अकेले हुए 
क्या पता रात के कब अंधेरे हुए 
याद आते हैं तेरे वो वादे किये 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

इन दिनों बारिशों का ज़माना नहीं 
कब बरस जाएँ लेकिन ठिकाना नहीं 
ग़म के बादल दिहाड़े घनेरे हुए 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

कैसा मासूम था किसको मालूम था 
उन लिफाफों में कैसा वो मजमून था 
बस बताने की ख़ातिर बसेरे हुए 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

हमसे मिलने लगे तुम तो खिलने लगे 
बात ही बात में हमसे खुलने लगे 
क्या बताएं के कैसे लुटेरे हुए 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

हाँ रहा मैं तेरे आसतीनों में भी 
ग़म के दिन और सालों महीनों में भी 
सांप गर मैं हुआ तुम संपेरे हुए 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

फिर कहानी वही और रवानी वही 
तुझसे रुसवाइयों से वीरानी वही 
जाने कितने ही जन्मों के फेरे हुए 
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

क्या सुनें ना सुनें और कहें ना कहें 
और कितने बहाने तेरे हम सहें 
अब तो ख़ामोशियाँ ही हैं घेरे हुए  
तुम तो मेरे ही थे पर न मेरे हुए 

कुछ सही कुछ नहीं !!

देखता हूँ, आंकता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
तुम ये रंगत कहाँ तक ही ले जाओगे?

बेचता हूँ, ठैरता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
अपनी शोहरत को कब तक यूँ सेहलाओगे?

तोलता हूँ, मोलता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
अपनी दौलत से खुद को क्या नेहलाओगे?

ताकता हूँ, घूरता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
अपनी हरकत से तुम बाज़ कब आओगे?

रेख़्ता हूँ, फेकता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
मेरी मोहलत से कब तक यूँ घबराओगे?

कोसता हूँ, रोकता हूँ, बोलता हूँ 
कुछ सही कुछ नहीं 
अपनी सूरत से कब तक यूँ शर्माओगे?

सेंधता हूँ, खोलता हूँ, बोलता हूँ
कुछ सही कुछ नहीं 
ऐसी लानत से बचकर कहाँ जाओगे?

तानता हूँ, ओढ़ता हूँ, बोलता हूँ
कुछ सही कुछ नहीं 
ऐसी फुर्सत के पल तुम कहाँ पाओगे?

मांजता हूँ, रेतता हूँ, बोलता हूँ
कुछ सही कुछ नहीं 
क्या वो जन्नत उठाकर यहाँ लाओगे?

छीनता हूँ, लूटता हूँ, बोलता हूँ
कुछ सही कुछ नहीं 
अब ये बरकत के गाने कहाँ गाओगे?

बेलता हूँ, सेकता हूँ, बोलता हूँ
कुछ सही कुछ नहीं 
इसकी क़ीमत मुझे तुम क्या दिलवाओगे?

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