Saturday, February 24, 2024

सुकून

वो बोलते हैं कई बार परेशां होकर 
ज़िन्दगी में कभी कभी सुकून मिलता है 
मैं सोचता हूँ कभी दिल से मेरे इस दिल को 
सुकून ना मिले तभी सुकून मिलता है 

सब यहाँ दौड़ में होड़ों में घिरे रहते हैं 
ढूंढते हैं कहाँ कहाँ सुकून मिलता है 
कोई डगर नहीं मिली न ठिकाना के जहां 
लोग कहते हों के यहाँ सुकून मिलता है 

मुतालबा सुकून का तो इस क़दर है बढ़ा 
के दस्तियादियों के नाम ख़ून मिलता है 
सुकून लफ्ज़ बचा है यही ग़नीमत है 
सुकून को भी तो कहाँ सुकून मिलता है 

मुझसे कहते हो मगर कैसा है ये तेरा शहर 
सुकून ढूंढता हुआ जूनून मिलता है 
झाँक कर देख लें ज़रा ये गरेबाँ में कभी 
कोई नहीं वहां जहाँ सुकून मिलता है 

No comments:

लिफ़ाफ़े ( एक नज़्म )

उनकी यादों के लिफ़ाफ़े को आज खोला है  कितनी प्यारी सी ये तस्वीर मिली है मुझको  जी में आता है के सारे वो लम्हे फिर से जिऊँ    क्या ख़बर कौन से प...