वो बोलते हैं कई बार परेशां होकर
ज़िन्दगी में कभी कभी सुकून मिलता है
मैं सोचता हूँ कभी दिल से मेरे इस दिल को
सुकून ना मिले तभी सुकून मिलता है
सब यहाँ दौड़ में होड़ों में घिरे रहते हैं
ढूंढते हैं कहाँ कहाँ सुकून मिलता है
कोई डगर नहीं मिली न ठिकाना के जहां
लोग कहते हों के यहाँ सुकून मिलता है
मुतालबा सुकून का तो इस क़दर है बढ़ा
के दस्तियादियों के नाम ख़ून मिलता है
सुकून लफ्ज़ बचा है यही ग़नीमत है
सुकून को भी तो कहाँ सुकून मिलता है
मुझसे कहते हो मगर कैसा है ये तेरा शहर
सुकून ढूंढता हुआ जूनून मिलता है
झाँक कर देख लें ज़रा ये गरेबाँ में कभी
कोई नहीं वहां जहाँ सुकून मिलता है
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