Monday, March 12, 2007

मेरा सनम है वो


वो बेवफ़ा तो है लेकिन मेरा सनम है वो
मैं ना हुआ मेरे लिये मगर अहम है वो
रुत-ए-हिज्रां फिर आ गई है याद उसकी लिये
ये और बात के इस रुत से भी सुखन है वो

कभी सुकूं नहीं मिलता तो कभी चारागरी
शब-ए-फ़िराक में अक्सर मेरा वहम है वो

अब तो सन्नाटे गूंज कर भी कुछ नहीं कहते
कोई कहता था कभी मेरा ही मेहरम है वो

कैसी उलझन है ज़िन्दगी भी अब फ़साना हुई
नाम जिस्का नहीं भूले मेरी कलम है वो

कौन कहता है के वो आज मेरे पास नहीं
इन हवाओं में शुआओं में हर कदम है वो

वो बेवफ़ा तो है लेकिन मेरा सनम है वो
मैं ना हुआ मेरे लिये मगर अहम है वो
रुत-ए-हिज्रां फिर आ गई है याद उसकी लिये
ये और बात के इस रुत से भी सुखन है वो

लिफ़ाफ़े ( एक नज़्म )

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